Monday, August 6, 2007

दौर नया पुराना...

काफी दिनों तक अंग्रेजी की परतें खोलने के बाद आज अचानक से मातृ भाषा मे लिखने का जोश सा चढा है. पिछले दो तीन दिन से कुछ न क़ुछ ऐसा घटित होता गया कि आज बस अंगुलियाँ कसमसा रही हैं हिन्दी लिखने को. य़ूँ देखिये तो एक विडम्बना ही है कि अपनी ही भाषा मे लिखने का जोश चढाने के लिये किसी प्रेरना स्त्रोत कि ज़रूरत पडे, पर ठीक है, ऐसे ही सही.

क़ल एक फ़िल्म देख आये हम्. १९५७ मे बनी 'नया दौर्'. अब आज क़ी तारीख मे पचास बरस पुराने 'नये' दौर को देखने जाना है तो थोडा अटपटा, पर करें भी तो क्या, हम प्राणि ही ऐसे हैं कि ज़िन्दगी मे कुछ न कुछ अटपटा न करें तो ज़िन्दगी अपनी सी नहीं लगती. और उस पर ये सौफ्टवेयर की दुनिया. 'काम भगाने वाले सबसे बडे मनहूस' का तमगा साल दर साल जीतने के बाद भी ये नौकरी हमें थोडा तो दौडने पर मजबूर कर ही देती है. ये दौड भले ही 'रैट रेस' हो मगर जाने अन्जाने हिस्सा तो हम भी बन ही चुके हैं. तो कभी कभार मन विचलित हो उठता है कि कुछ दम रुकें और रुककर अपने माज़ी को देखें और सराहें. जी मैं अपने खुद के माज़ी की बात कतई नही कर रहा, मैं बात कर रहा हूं अपने समाज के माज़ी की, उससे जुडे कईं पहलुओं के माज़ी की. उदाहरण के तौर पर सिनेमा जगत्. तो बस कल रविवार ऐसा ही एक दिन था. पता चला कि ई-स्क्वायर में नये रंगों वाली पुरानी 'नया दौर्' लगी है तो कुछ मित्रों से आग्रह किया कि भई साथ दोगे क्या? मित्र भी मूड मे थे तो हम सब साथ हो लिये.




अक्सर लोग कह डालते हैं कि कला के नज़रिये से हिन्दुस्तानी सिनेमा जगत पहले जितना समृद्ध था अब उतना नही रहा. मैं खैर इस बात से तो इत्तेफाक़ नही रखता पर हाँ, उस समय के सिनेमा की भाजी मे इनोसँस का जो तड्का हुआ करता था, वो ज़रूर कहीं खो सा गया है. अब 'नया दौर' को ही लें, कहाँ मिलेंगे ऐसे अजीत जो वैजयन्तीमाला को एक नज़र देख कर लट्टू हो जायें और उन्ही के घर में उनका हाथ पकड कर लाइन मारने लगें, मगर मज़ाल है कि चेहरे पर से भोलापन एक पल के लिये भी हटा हो. और उसी भोलेपन से अपने य़ुसुफ भाई (दिलीप कुमार्) ने तो कमाल ही कर डाला. पहली मुलाकात मे लट्टू हो बैठे, दूसरी मे हाथ पकड लिया और तीसरी में तो सीधे डेट पर ले उडे गाँव के मन्दिर में. अब अपनी गाँव की गोरी वैजयन्ती ही कौन सी कम थी. 'माँग के साथ तुम्हारा मैंने माँग लिया सन्सार्' गाने मे चँद मिनट ही लगे उन्हे.

किसी भी युग का सिनेमा उस युग के समाज क दर्पण होता है. नया दौर के पात्र न सिर्फ फिल्म के पात्र हैं बल्कि उस युग के समाज को भी परिलक्षित करते हैं. तो अब सोचिये कितना फायदा हुआ. सिर्फ १३० रुपये देकर हम तीन घन्टे कि यात्रा सन् १९५७ में कर आये. तो आप इस लेखान्श को यात्रा-विवरण भी कह सकते हैं. राहुल सान्स्कृत्यायन जी यदि आपत्ति न करें तो हम इसे घुमक्कड शास्त्र का उदाहरण भी बना सकते हैं.

हिन्दुस्तान के लिये १९५७ वक्त था आज़ादी के बाद का वक्त और दुनिया के लिये था मशीनीकरण का वक्त्. एक तूफानी वक्त रहा होगा वो. नेहरू जी हिन्दुस्तान की नैया में पँचवर्षीय योजनाओं और लाइसँस राज़ की पतवार लगाके पार पहुँचना चाहते थे. वो सही थे या गलत, अब ये तो बहुत विवाद का विषय है. य़ा यूँ कहिये कि पून्जीवाद और समाजवाद के पुराने झगडे का एक और उदाहरण है. पर नया दौर एक दर्पण ज़रूर है उन लोगों का जो उस नैया में सवार हुए थे. कुछ डूब गये, कुछ पून्जीवाद के स्टीमर पर कूद कर बच गये और कुछ अभी तक सन्घर्षरत हैं. हालाँकि फिल्म् में मशीनों की हार दिखायी है, पर देखा जाये तो आने वाले सालों में सच ने कुछ और ही रास्ता अख्तियार् किया था. बी. आर्. चोपडा जी ने भले ही ताँगे को जितवा दिया हो पर वक्त ने जीवन की बस को ही जितवाया है. किसना (अजीत्) के कन्धे और शन्कर (दिलीप कुमार्) का ताँगा मिलकर भी मशीनीकरण की आँधी को रोक न सके. खत्म होने से पहले फिल्म भी तो इस बात को स्वीकार करती है और कहती है कि 'बाबू तुम तो पढे लिखे हो, कोई बीच का रास्ता निकालो, हमें मशीनों से कोई दुश्मनी नहीं'. ये बीच का रास्ता बडा ही गूढ प्रश्न है. ये वो ही है जिसे हम 'समन्वयक पून्जीवाद्' (इन्क्लूसिव कैपिटलिस्म्) कह्ते हैं. पर फिर सोचो तो ये भी सिर्फ एक वाद या एक विचार ही है. अपने दिलीप भाई ने भी प्रश्न को उछाल कर छोड दिया है. उत्तर नही दिया.

उत्तर दिया है मनिरत्नम के 'गुरू' भाई ने. और इस् बार कुन्दन (जीवन्) की बस ही आगे निकलती दिख रही है. आप और मैं सब सवार हैं इस बस में, देखिये किधर ले जाती है.....

8 comments:

Aniruddha Sharma said...

मिया कमाल कर दिया। खूबसूरत विचार है।
और अपनी भाशा मे लिखा उसके लिये बधाई के हकदार हैं आप।
आपने लिखा कि अपनी भासा मे लिख्नने के लिये किसी प्रेरना स्त्रोत की ज़रूरत पडे ये एक विडम्बना ही है, बल्कि यू कहिये कि आज अपनी भाशा मे लिखना पिछडा होने कि निशानी मानी जाती है। मेरा भारत महान क्योंकि यहां किसी मे नहीं है स्वाभिमान। बहरहाल, ये अपने आप में बहस का एक मुद्दा है, इसे छोड्कर अपने विशय पर आते हैं।

"नया दौर", देख कर आंखों और दिल को सुकून मिलता है। उसमें कोई माइंड ब्लोईंग माहिया नहीं है, जो भी है वो भोला भाला है। प्रेम से लेकर आपसी रिश्तों और प्रतियोगिता में भी एक मासूमियत है।

क्रमशः

Siddhartha said...

Yaar bahut achha likha hain, now i dont know how to comment in hindi, isliye i wud stick to english, lekin sahi laga padh ke....will look forward to more such posts !!!

Siddhish said...

मित्रों, प्रशंसा के लिये धन्यवाद्|

सिद्धार्थ जी, आप इस लिन्क पर जाकर देखिये| काफी अच्छा टूल है हिन्दी लिखने हेतु|

http://www.hindini.com/tool/hug2.html

ken said...

kya baat hai kya baat hai .. bahut khoob likha hai :-)

Siddhish said...

Thanks Abhishek

Anonymous said...

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Anonymous said...

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